Saturday, July 20, 2013

स्कूल की पहली स्मृति





 स्कूल की सबसे पहली स्मृति दल्ली राजहरा की है। दो-तीन बातें ही याद रह गई हैं। पहली तो यह कि कक्षा की खिड़कियों से पहाड़ियाँ दिखती थीं, उस समय पहाड़ियाँ हरी-भरी थीं। बैठने के लिए डेस्क की व्यवस्था थी। मैं देर तक पहाड़ियों की ओर देखता रहता था। न टीचर याद हैं न साथ के बच्चे। केवल एक दोस्त था उसका नाम था दामोदर, वो इसलिए याद है कि उसके हाथों में छह ऊँगलियाँ थीं। स्कूल में पढ़ा हुआ कुछ भी याद नहीं, बस एक पाठ याद आता है नैतिक शिक्षा का। एक साधु की कहानी थी, उसे एक बिच्छू काट रहा था लेकिन वो कष्ट सह रहा था। घर आकर नये अक्षर लिखना सीखता था, जीवन का सबसे पहला कठिन अनुभव यही था लेकिन इसका लाभ हुआ, मैं कविता पढ़ना सीख गया था और बहन की क्लास फोर्थ की एक कविता मुझे बहुत अच्छी लगती थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी।
                                                        स्कूल की इतनी कम स्मृतियाँ इसलिए हैं कि मैं शायद ही कभी स्कूल जाता था, घर से टिफिन लेकर पापा के साथ निकलता था, जिद करता था पहाड़ दिखाओ, पहाड़ के ऊपर वाला मंदिर दिखाओ, बस मैं टाइम पास करना चाहता था लेकिन एक अजीब किस्म का अपराध बोध भी मेरे मन में घिरता था। मुझे उस दौर में कापियाँ बहुत अच्छी लगती थीं। उस समय सरकारी राशन दुकानों में कापियाँ भी मिलती थीं, उनकी प्रिंटिंग क्वालिटी बहुत अच्छी होती थी। हमारा स्कूल बहुत प्रोग्रेसिव था और अच्छे नंबर पाने वालों बच्चों को कॉपियाँ गिफ्ट की जाती थीं, ऐसे ही एक मौके पर जब प्रतिभाशाली बच्चों को कॉपियाँ बंटी, मैं बहुत निराश हुआ, कॉपी बहन को मिली, मुझे नहीं। बच्चों को गणवेश भी फ्री में बाँटे जाते थे, मुफ्त की चीजों में मुझे हमेशा से रुचि थी लेकिन जब मैं गणवेश लेने पहुँचा तो बताया गया कि गणवेश नियमों के अनुसार मिलेंगे और कुछ ही बच्चों को मिलेंगे।
                                                               बचपन का असल रंग मैंने शाम को देखा, शाम को बहुत से बच्चे इकट्ठे हो जाते थे, शाम को पहाड़ी से सूर्य ढलता था और एक रेस लगती थी बच्चों में कौन सूरज को पकड़ेगा। सूरज और चाँद की तुलना में मैं सूरज के अधिक करीब था क्योंकि एक कहानी सुन रखी थी। एक बूढ़ी माँ के दो बच्चे थे चाँद और सूरज। वो उन्हें एक जगह खाना खिलाने ले गई। यहाँ कुछ हादसा हुआ और चाँद ने बूढ़ी माँ के साथ बदमाशी की, तब मुझे लगने लगा कि सूरज अच्छा है चाँद बुरा। पर चाँद के बारे में धारणा बदली, हम लोग दूसरी मंजिल में रहते थे और हर दिन चाँद दिखता था, एक बार शाम ढलने के समय मैंने चाँद को अपनी छत से देखा, वो इतना बड़ा, इतना करीब था कि मुझे अजीब सी अनुभूति हुई। यह घटना मुझे आध्यात्मिक अनुभव की तरह लगती है। शायद चाँद के ऐसे ही कौतूहल ने श्री कृष्ण को यह कहने के लिए प्रेरित किया होगा, मैंया मैं तो चंद्र खिलौना लेहौं।

2 comments:

  1. बचपन की यादों मिएँ उतारते उतारते कहां से कहां पहुँच जाता है मन ... पहाड़ी से सूरज से गणवेश से होता हुवा आध्यात्मिक आभास लिए सुन्दर पोस्ट ...

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  2. @ मैंया मैं तो चंद्र खिलौना लेहौं
    मासूम दिनों की मासूम यादें ...

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आपने इतने धैर्यपूर्वक इसे पढ़ा, इसके लिए आपका हृदय से आभार। जो कुछ लिखा, उसमें आपका मार्गदर्शन सदैव से अपेक्षित रहेगा और अपने लेखन के प्रति मेरे संशय को कुछ कम कर पाएगा। हृदय से धन्यवाद