३ अप्रैल को निर्मल का जन्मदिन है लेकिन याद आती है उनकी पुण्यतिथि। पहली बार
हिंदी के किसी लेखक की मौत को हमारे न्यूज चैनलों ने वैसी ही तवज्जो दी थी जैसे
फिल्म स्टारों को नसीब होती है। एनडीटीवी का कवरेज अब तक याद है रात का रिपोर्टर
और अंतिम अरण्य की चुनिंदा पंक्तियाँ। पहली बार लगा कि इन न्यूज चैनलों में केवल
वो लोग नहीं है जो लंबे-चौड़े पैकेजों के पीछे घूमते हैं अथवा राजनेताओं की
गलबहियों में नजर आते हैं। इनमें वो लोग भी हैं जो निर्मल वर्मा को पढ़ते हैं।
गालिब का वो शेर मुझे बहुत लुभाता है होंगे दुनिया में बहुत से सुखनवर, मगर
गालिब का अंदाज-ए-बयां कुछ और है। हिंदी में यही बात मैं निर्मल वर्मा के संबंध
में कहना चाहता हूँ। उनके कुछ फलसफे हर दिन जेहन में आते हैं। कल चेखव के पत्रों
के संबंध में उनका लेख पढ़ा। चेखव पर उन्होंने जो लिखा है उसे पढ़कर भ्रम होता है
कि कहीं निर्मल अपने पत्रों के बारे में तो ऐसा नहीं लिख रहे।
उनकी डायरी का एक अंश याद आता है। मनुष्य के दुख में कोई विशेष वृद्धि नहीं
हुई लेकिन उसके ज्ञान में अवश्य वृद्धि हुई है कि वह मनुष्य होने के अनिर्वचनीय
दुख का अनुभव कर सके। चेखव के पत्र पर उनकी टिप्पणी पढ़ते हुए अपने भाई रामकुमार
को लिखे उनके पत्रों का संकलन प्रिय राम की स्मृति फिर लौट आई। इसमें लिखा है कि
अस्पताल के कष्टों को सहने के बाद निर्मल जब घर लौटे तो उन्होंने जेएम कोएत्जी की
पुस्तक शुरू कर दी। एक दिन उन्होंने गगन से कहा कि बर्गमैन का शो लगाओ। स्वीडिश
फिल्मकार बर्गमैन का सिनेमा उन्हें हमेशा से प्रिय था। यह फिल्म एक कुबड़े व्यक्ति
के ऊपर थी। फिल्म का यह पात्र कहता है कि लोग हमेशा जीसस के क्रूज के क्षण को याद
करते हैं लेकिन वो उनके पूरे जीवन को भूल जाते हैं जिसमें वो लोगों के लिए कितना
कष्ट सहते रहे।
वो सेंट जेवियर से पढ़े थे, उनके लिए शानदार करियर बिछा था, लेखक ही बनना
चाहते तो भी अंग्रेजी में लिखकर लाखों कमा लेते लेकिन उन्होंने एक असुरक्षित करियर
चुना, एक ऐसी भाषा में लिखने का जोखिम भरा फैसला जिसका दामन उसके अपने लोगों ने
छोड़ दिया है। इसके लिए उन्हें बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। इसका एहसास मुझे तब हुआ जब
मैंने उनका उपन्यास रात का रिपोर्टर पढ़ा। इमरजेंसी के वातावरण पर लिखा यह उपन्यास
निर्मल की आत्मा का सच है इसे आप उनकी पारदर्शी भाषा में देख सकते हैं। कुछ पन्ने
पलटने के बाद जब मैंने पढ़ा कि जब डर के कीटाणु शरीर में प्रवेश करते हैं तो अन्य
सभी बीमारियाँ गायब हो जाती हैं तब इस उपन्यास को आगे पढ़ने का साहस छूट गया।
इन दिनों रोज निर्मल की एक क्लासिक पंक्ति याद आती है जीते जी मृत होना, यह
मेरी सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा है जिसे मैं अब तक प्राप्त नहीं कर पाया हूँ।
सच्ची श्रद्धांजलि.
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